1947 से अब तक देश के प्रधानमंत्रियों ने लाल किले से जनता के सामने कैसे रखा भविष्य के भारत का नजरिया?
1947 में भारत की आजादी के बाद से अब तक सभी प्रधानमंत्रियों ने स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले की प्राचीर से राष्ट्र को संबोधित किया है. इस मौके पर देश के प्रधानमंत्री सभी चुनौतियों को रेखांकित करते हैं, प्राथमिकताओं को निर्धारित करते हैं और भविष्य के लिए एक नया नजरिया पेश करते हैं. आजादी से लेकर अब तक सभी प्रधानमंत्रियों के भाषणों की समीक्षा करें तो यह पता चलता है कि हर प्रधानमंत्री शासन, विदेश नीति, अर्थव्यवस्था और राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे मुद्दों को अपने अलग-अलग नजरिए से उठाया है.
दशकों में नजरिए में बदलाव
देश की आजादी के बाद के शुरुआती सालों में लाल किले के स्वतंत्रता दिवस पर दिया गया प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का भाषण गरीबी, कृषि, शिक्षा और विदेश नीति जैसे मुद्दों पर केंद्रित होते थे. अपने सामने इतने सारे प्रमुख मुद्दे होने के बावजूद पंडित नेहरू 15 अगस्त को कई बार 15 मिनट से भी कम समय के लिए भाषण देते थे. वहीं, इंदिरा गांधी के भाषण उनसे पंडित नेहरू से लंबे होते थे, लेकिन फिर भी वे उनके बाद के प्रधानमंत्रियों की तुलना में संक्षिप्त होते थे. जबकि राजीव गांधी ने धीरे-धीरे स्वतंत्रता दिवस पर भाषण देने के समय को बढ़ाया और वे अक्सर आधे घंटे से ज्यादा समय तक देश के नाम संबोधन देते थे.
वहीं, इसके विपरीत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले से लगातार लंबे संबोधन दिए हैं, उनके भाषण में विस्तृत कार्ययोजनाएं, समयसीमा और साल-दर-साल की प्रगति रिपोर्ट शामिल होती है. उनका अंदाज पूर्व प्रधानमंत्रियों से बिल्कुल अलग है, जिन्हें अक्सर स्वतंत्रता दिवस के भाषण को एक नीतिगत दिशा तय करने वाला मंच मानने के बजाए मात्र औपचारिकता भर मानने के लिए आलोचना झेलनी पड़ी थी.
व्यवसाय और अर्थव्यवस्था
स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री की ओर से भाषणों में सरकार और व्यवसाय के बीच संबंध बार-बार उठाया जाने वाला विषय रहा है. नेहरू अक्सर अपने भाषणों में व्यापारियों और उद्योगपतियों की आलोचना करते थे, उन पर मुनाफाखोरी करने और काला बाजारी करने के आरोप लगाते थे. वहीं, इंदिरा गांधी ने भी इसी तरह की चिंताएं जताईं. वह अपने भाषणों में भ्रष्टाचार और बाजार में हेरफेर के खिलाफ चेतावनी देतीं थी. जबकि राजीव गांधी अपनी मां के समय में बैंकों के राष्ट्रीयकरण जैसे सुधारों का उल्लेख करते हुए पूंजीवादी ताकतों के प्रभाव को सीमित करने पर भी बात करते थे.
हालांकि, वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का रुख उन सभी से बिल्कुल अलग रहा है. साल 2019 के अपने भाषण में प्रधानमंत्री मोदी ने पैसे बनाने वालों को राष्ट्र निर्माता कहा और उद्यमिता के प्रति सम्मान देने की अपील की. पीएम मोदी का यह कदम स्टार्ट-अप्स और निजी निवेश को प्रोत्साहित करने की दिशा में व्यापक नीतिगत बदलाव को दर्शाता है.
देश की जनता से संवाद
देश के नागरिकों के लिए सभी प्रधानमंत्रियों का आवाज अलग-अलग रही है. जहां, पंडित नेहरू अक्सर लोगों से अधिक मेहनत करने, खुद को बेकार होने से बचने और सरकार के पहलों का समर्थन करने की अपील करते थे. कई बार वे कमी और महंगाई के लिए जनता के व्यवहार को जिम्मेदार ठहराते थे. वहीं, इंदिरा गांधी ने अपने भाषणों में नागरिकों की जिम्मेदारी पर जोर दिया, लेकिन इसके साथ ही उन्होंने काला बाजारी को बढ़ावा देने के लिए उपभोक्ता के विकल्पों को भी दोषी ठहराया.
जबकि राजीव गांधी ने भारत की प्रगति को दशकों के नेतृत्व का परिणाम बताया और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लगातार अपने भाषणों में आम नागरिकों पर भरोसा जताया है. उन्होंने अक्सर लोगों के दृढ़ता की सराहना की है और उन्हें राष्ट्रीय परिवर्तन के केंद्र में रखा है.
राष्ट्रीय सुरक्षा और विदेश नीति
लाल किले से दिए गए सभी प्रधानमंत्रियों के भाषण में बाहरी खतरों का मुद्दा हमेशा से रहा है. उनमें विशेषकर चीन और पाकिस्तान से जुड़े मुद्दे रहे ही हैं. 1962 और 1963 के नेहरू के भाषण में चीन से सीमा संघर्ष के बाद सतर्कता का स्वर गूंजता रहा, लेकिन आलोचकों का कहना था कि उन्होंने देश के लिए शहादत देने वाले सैनिकों का स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं किया.
इसके विपरीत नरेंद्र मोदी ने साल 2020 में लद्दाख में हुई सैन्य कार्रवाई जैसे सेना के अभियानों का अपने भाषण में जोर देते हुए उल्लेख किया और देश के लिए शहीद हुए सैनिकों को श्रद्धांजलि दी.
वहीं, पाकिस्तान के संदर्भ में, नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह तक कई प्रधानमंत्रियों ने साझा इतिहास और शांति की जरूरत पर जोर दिया. लेकिन दूसरी ओर पीएम मोदी का रुख पूर्व प्रधानमंत्रियों के रुख से अधिक आक्रामक रहा है. उन्होंने अपने भाषणों में आतंकवाद के खिलाफ सख्त कदम और पाकिस्तान-अधिकृत क्षेत्रों के लोगों का उल्लेख किया है.
महंगाई और सुशासन
देश में महंगाई और खाने की कमी का संकट हमेशा से एक स्थायी चिंता बना रहा है. नेहरू और इंदिरा गांधी अक्सर अपने भाषणों में इस समस्या का अक्सर उल्लेख करते थे, लेकिन उनके भाषणों में ठोस उपायों की कमी रहती थी. एक समय तो इंदिरा गांधी ने लोगों से खाद्य सामग्रियों की कमी से निपटने के लिए घरों में सब्जियां उगाने की सलाह दी थी. वहीं, मनमोहन सिंह ने अपने भाषणों में किसानों को बेहतर दाम देने की बात कही, लेकिन महंगाई को आंशिक रूप से वैश्विक कारकों से भी जोड़ा. जबकि मोदी ने कोरोना महामारी के दौरान देश की जनता के लिए मुफ्त अनाज वितरण जैसी कल्याणकारी योजना की शुरुआत की और मजबूत व्यापक आर्थिक आधारों की ओर इशारा किया.
वहीं, सुशासन और जवाबदेही पर नेहरू और इंदिरा ने जिम्मेदारी की बात की, लेकिन उन पर अक्सर जनता पर दोष डालने का आरोप लगा. मोदी ने साल 2014 में अपने पहले स्वतंत्रता दिवस भाषण में पारदर्शिता व कार्यान्वयन पर जोर देते हुए कहा कि सरकारों को उनकी कथनी और करनी से परखा जाना चाहिए.
लोकतंत्र और नेतृत्व शैली
साल 1970 के दशक के आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी के भाषणों ने लोकतांत्रिक स्वतंत्रताओं के निलंबन को परिस्थिति के अनुसार जरूरी बताया था. वहीं, राजीव गांधी ने अपने भाषणों में लोकतांत्रिक संस्थाओं का बचाव किया लेकिन उनमें देखी जाने वाली गैर-जिम्मेदारी की आलोचना भी की. जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने भाषणों में बार-बार लोकतंत्र को भारत की सबसे बड़ी ताकत बताया है और लोगों से भ्रष्टाचार, वंशवाद और तुष्टिकरण को खत्म करने की अपील की है.
विरासत की निरंतरता
वहीं, 1947 से अब तक देश के कई प्रधानमंत्रियों ने अपने पूर्ववर्ती नेताओं को अलग-अलग ढंग से प्रस्तुत किया. राजीव गांधी ने भारत की प्रगति का श्रेय काफी हद तक अपने परिवार के नेतृत्व को दिया, जबकि पीएम मोदी ने स्वतंत्रता के बाद से सभी सरकारों के योगदान को स्वीकार किया है.
अब स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले की प्राचीर से देश के प्रधानमंत्री की ओर से दिया जाने वाला भाषण मात्र प्रतीकात्मक नहीं रहा है. यह न सिर्फ प्रत्येक दौर की प्राथमिकताओं को दर्शाते हैं, बल्कि नेताओं और जनता के बीच बदलते रिश्ते को भी उजागर करते हैं.
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